यह आज से तीन साल पहले की घटना है. मेरा बेटा ने एक बार इच्छा जाहिर किया था कि वह मेरा बचपन का हस्तलिपि देखना चाहता है खासतौर पर उस समय का जब मैं ठीक उसके उम्र का था अर्थात मेरे बारह वर्ष के उम्र का हस्तलिपि. मैं बहुत प्रयत्न किया लेकिन ऐसा कोई कागज नहीं मिल सका जिसमें मेरे बचपन का हस्तलिपि मिले. मेरा गाँव भी कोसी नदी में बह गया था, मेरे घर के सारे सामान बह गए. बचपन का हस्तलिपि कहाँ मिलता? गाँव से आने के बाद पहले पढाई और उसके बाद रोजगार के लिए मैं शहर-दर-शहर भटकता रहा. किसी एक जगह पर मैं पाँच साल से ज्यादा टिककर नहीं रह पाया. प्रत्येक स्थानांतरण में लोग कुछ ना कुछ खोता है. भला बचपन के हस्तलिपि को भी कोई सम्हालकर रखता है? मैंने उसको टाल दिया था लेकिन मेरा अवचेतन मस्तिष्क हमेशा से अपने पुराने हस्तलिपि को ढूँढना चाहता था.
फिर मुझे याद आया कि गाँव से आने के बाद मेरा पहला प्रवास गोरखपुर में हुआ था जहाँ मेरे पिताजी रिटायरमेंट होने से पूर्व पैंतीस वर्ष तक रहे थे और मैं भी शुरुआती चार-पाँच साल गुजारा था. वहीं कुछ मिल सकता था. मुझे याद है मेरे घर में एक संदूक हुआ करता था. फिर मुझे याद आया बचपन में मैं डायरी लिखता था और उस डायरी को मैं गोरखपुर लेकर आया था वह कहीं ना कहीं अवश्य मिलेगा. मैंने अपने बेटे को आश्वासन दिया कि हम लोग गोरखपुर के अगले प्रवास में उसको ढूँढेंगे?
फिर 2018 में हम लोग लम्बी छुट्टी में गोरखपुर गए थे. बेटा ने याद दिलाया और अगली सुबह, मैं तसल्ली से डायरी ढूँढने लगा. हमने संदूक खोला और उसमें से बहुत कुछ निकला. पीतल के कुछ पुराने वर्तन, पता नहीं माँ-पिताजी किसके लिए सम्हालकर रखे थे, पिताजी का एक सूट जिसको उन्होंने विभिन्न शादियों में कम से कम एक दशक तक पहना था, कुछ पुराने कम्बल, कुछ एलबम इत्यादि. उसमें मुझे एक थैला दिखा जो कभी मेरा ही हुआ करता था. उसमें मैं अपने बचपन का कागजात जैसे वाद विवाद प्रतियोगिता में मिला सर्टिफिकेट, पिताजी के भेजे हुए चिट्ठियाँ, भेंट में मिला पुराने कलम इत्यादि रखा करता था. एक समय में ये मेरे उपलब्धियों में गिना जाता था, कालक्रम में ये महत्वहीन हो गया. मैं खोजता रहा लेकिन मुझे डायरी नहीं मिली. डायरी कहीं नहीं थी. क्या उस डायरी को मैं कालेज के हास्टल तो नहीं ले गया था. कालेज से निकले भी बीस साल हो गए हैं. मुझे डायरी नहीं मिली. हाँ उस थैले में कुछ खुले पन्ने मिले, जिसपर मेरे हाथ से लिखा हुआ कुछ लेख जैसा चीज था, बिल्कुल वैसा ही जैसे परीक्षा में लिखते हैं, जिसका शीर्षक काले कलम से और मुख्य भाग नीले कलम से लिखा होता है. ऐसे बहुत सारे खुले पन्ने थे, बेतरतीब ढंग से मुड़ा हुआ, अलग-अलग आकार के पन्ने, नींव वाली कलम से लिखा हुआ बहुत सारे पन्ने.
उसे देखते ही मेरा बेटा चहक उठा, “ये आपका अक्षर है? पहले कितना अच्छा हुआ करता था”.
“नींव वाली कलम से अक्षर बढ़ियाँ ही होता है, कभी लिखकर तो देखो”.
बेटे को हस्तलिपि पर कोई भाषण नहीं सुनना था. उसमें से एक पन्ना उठा लिया और उसपर लिखा हुआ पढ़ने लगा. उस पन्ने पर सबसे उपर शीर्षक के रुप मे काले कलम से लिखा था -- “श्याम सुन्दर की दूसरी बहु”.
मेरा बेटा उस पन्ने को लहराने लगा जैसे उसे कोई ट्राफी मिल गया हो, फिर जोर से पढ़ने लगा था, “श्यामसुंदर की बहु. यह श्यामसुंदर की दूसरी बहु है जो अभी तीन साल पहले ही शादी करके आयी है. दिन भर काम करती रहती है. जबसे वह आयी है श्यामसुंदर को बिल्कुल बदल ही डाली है, कहाँ वह आवारा की तरह दिन रात गाँव के मटरगस्ती करता रहता था अब खेत पर जाने लगा है, अपने हाथोँ से कुट्टी काटता है और गाय-बैल को सानी लगाकर देता है”.
बेटा तुरंत सब कुछ पढ़ लेना चाहता था. लेकिन “कुट्टी” और “सानी” शब्द पर अटक गया. उसे अब मेरी जरूरत पड़ गयी. उसने पुछा ये कौन थी श्याम सुन्दर की बहु? श्यामसुंदर कौन था? फिर उसने दूसरे पन्ने उठाते गए और उसके शीर्षक को पढ़ता गया. आपने ये सब क्यों लिखा था?
मैं भी उस पन्नों को देखने लगा. मेरे सामने तीस साल पहले की कहानी किसी फिल्म के सदृश्य तेजी गति से चलने लगा. बेटा को उत्तर देना आवश्यक था. मैंने बताया---
“देखो, श्यामसुंदर मेरे गाँव का पच्चीस वर्षीय युवक था, और इस पन्नों में उसकी दूसरी पत्नी के बारे में लिखा गया है”.
“उसकी पहली पत्नी को क्या हुआ, बचपन में आपने उसके पत्नी के बारे में क्यों लिखा?”
“यह मेरे पिताजी के द्वारा दिया गया एक टास्क था, जो मुझे नियमित पूरा करना पड़ता था. मेरे पिताजी का कहना था कि बच्चों को सबसे पहले शब्दों के द्वारा अपने भावनाओं को अभिव्यक्त करना आना चाहिए. यह तभी होगा जब बच्चा लिखेगा, अपने आसपास के बारे में लिखेगा. मेरे पिताजी अपने गाँव से बहुत दूर गोरखपुर में रहते थे जहाँ पहुँचने में उनको डेढ दिन लग जाता था, वे गाँव साल में दो तीन बार ही आते थे. अपने परिवार और अपने गाँव का हाल जानने के लिए चिट्ठी ही एक सहारा था. पिताजी ने मुझे निर्देश दे रखा था कि प्रत्येक महीना गाँव में क्या हुआ उसे चिट्ठी के माध्यम से उन्हें सूचित करूँ. घर के अन्य सदस्य आवश्यक काम के लिए चिट्ठी लिखते थे. लेकिन मुझे प्रत्येक महीना एक पत्र लिखना पड़ता था. यह बहुत ही अच्छा व्यवस्था था मेरे पिताजी गाँव का खबर जान लेते थे और मेरा लिखने का अभ्यास हो जाता था.
फिर कई बार ऐसा हुआ कि मैं चिट्ठी लिखकर रखा और पिताजी गाँव आ गए. उसको डाक के द्वारा भेजने की आवश्यकता ही नहीं रही. वह इसी थैला में पड़ा है. कई बार चिट्ठी लिखने के बाद कुछ दूसरा ही महत्वपूर्ण घटना घट जाती थी और उस चिट्ठी को छोड़ अन्य चिट्ठी लिखना पड़ता था. ऐसे अन्य भी कुछ कारण रहे होगे जिसके कारण पिताजी को मैं यह पोस्ट नहीं कर पाया.
ये खुले पन्ने उन्हीं चिट्ठियों का संग्रह है जो अपने गंतव्य तक पहुँच ही नहीं पाया. ”
“तो कौन था ये श्यामसुंदर? और कौन थी उसकी दूसरी पत्नी?”
“जानना चाहते हो?”
“जी हाँ!”
“चलो मैं विस्तार से बताता हूँ. इस छुट्टी में प्रतिदिन मैं एक चिट्ठी पढ़कर सुनाऊँगा.”
इस पुस्तक में लिखी हुई प्रत्येक कहानी, उन्हीं खुले पन्नों पर लिखी गयी चिट्ठियाँ है जो कभी अपने गंतव्य तक पहुँच ही नहीं पाया.
कहानियों का कहानी अभी खत्म हुआ, अब असली कहानी शुरु होगा. अगले पोस्ट मे पढिए: श्यामसुंदर के दूसरी बहु की कहानी!
बहुत नीक। The introduction has whetted my appetite.Waiting for more.
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